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नमन सौ-सौ बार तुमको



संजय कृष्ण

(संजय ज़मानियां के रहने वाले हैं. इस समय रांची में दैनिक जागरण अखबार में काम कर रहे हैं.)

डॉ.
शुकदेव सिंह को गए सितंबर में एक साल पूरा हो जाएगा। डॉ. सिंह का जाना सिर्फ संत साहित्य के एक अध्येता का जाना भर नहीं है, बल्कि एक परंपरा का अवसान है, उस परंपरा का, जिसने कबीर की बोली-बानी को जीवन भर समझने-समझाने का प्रयास किया, जिसका जीवन कबीर को समर्पित हो गया था। ऐसे कबीर साधक का जाना सचमुच एक बड़ी क्षति है जिसकी भरपाई निकट भविष्य में संभव नहीं दिखती।
उनका पूरा जीवन कबीर के अध्ययन-मनन को समर्पित था। इधर रैदास और रामानंद पर काफी काम किया था, लेकिन पूरे संत साहित्य को लेकर उनकी दृष्टि नितांत अलग थी। संत साहित्य को लेकर उनका यह भी ख्याल था कि पूरे इस साहित्य परंपरा, संघर्ष और परिवर्तनकामी चेतना पर तुलसी अकेले भारी पड़ गए। कबीर पर उनका अध्ययन तो विलक्षण था ही, कबीर की भाषा को लेकर उनकी व्याख्या एक नए वितान की रचना करती है। शुक्ल की ही तरह कबीर की भाषा को वे खिच़डी नहीं मानते थे, भाषा तो कबीर का हथियार थी। जब उनके कबीर पर अध्ययन को देखता हूं और इधर के कई लेखकों की कबीर पर किताबों को पलटता हूं तो उनकी गहराई का एहसास होता है। ऐसा कहना उन लेखकों को कमतर आंकना नहीं है बल्कि कबीर को लेकर शुकदेव सिंह की बुनियादी समझ में कितना अंतर था, कितनी मौलिकता थी, यह देखना है। उनकी धीर-गंभीर किताबों को पढ़िए और शुकदेव सिंह का कबीर पर किताब की कौन कहे, कोई लेख उठा लीजिए,....दोनों का फर्क महसूस हो जाता है। यह भी अनुभव होगा कि कबीर से उनका परिचय केवल 'सबद' के स्तर पर नहीं था, वे 'सबद' के पीछे के अर्थ और अर्थ के भीतर छिपे मर्म को देखते थे। यह देखने की कला उन्हें कबीर से ही मिली थी, इसीलिए वे आंखन देखी की कहा करते थे, सुनने में उनका कोई विश्वास नहीं था। गद्य उनका इठना गठा हुआ रहता कि एक बार शुरु हो जाए तो अंत करके छो़डना ही संभव हो पाता। चमत्कृत कर देने वाली उनकी भाषा बहते नीर के समान है। कबीर की तरह शास्त्र से उनका दुराव नहीं था, लेकिन बनारस में रहकर शास्त्रीयता के चक्कर में वे कभी नहीं पड़े। सहजता तो जैसी उनकी सहचरी हो। जब भी उनके निवास पर जाता घंटे से पहले निकलना संभव नहीं हो पाता। घंटों कबीर की बानी के रहस्य का भेदन करते, उनकी भाषा की बारीकियों, जमीन से जुड़े प्रतीकों के अनूठे प्रयोग को समझाते-बतियाते। कहते कबीर ऐसे आदमी थे जिन्होंने अपनी कविताई के लिए शास्त्रों से उपमा लेने की जरुरत नहीं थी, जिस काम को वे करते थे यानी कपड़े की बुनाई के औजारों को हथियारों की तरह कविता में प्रयोग करते। 'काहे का ताना काहे बाना' में देखें तो इस अनूठे प्रयोग से कबीर की भाषिक ऊंचाई का बोध होता है। उनका मानना था कि साधु संस्कृति को समझना 'शब्द' और 'पद' का अंतर जानना, भिक्षाजीवी साधुता के समांतर कर्मजीवी साधुता का रहस्य जानना साधारण काम नहीं है, घर पर किताब के पन्ने उलटकर कबीर पर नहीं लिखा जा सकता। उनके लिए निरक्षर समाधि की आवश्यकता है। वह यह भी मानते थे कि व्याकरणबद्ध भाषा में कबीर को नहीं लिखा जा सकता, उसके लिए उलटी बानी थी, मेघा में आगम-निगम के पार यात्रा जरूरी है।
गुजरात दंगे के बाद मोरारी बापू ने उन्हें गुजरात देखने के लिए बुलाया, वे गए। आने के बाद उन्होंने गुजरात पर टिप्पणी की, इस टिप्पणी से धर्मनिरपेक्षता के ध्वजवाहक नाराज हो गए। पर उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा। सच-सच कहने की कीमत वे जानते थे। वैसे ये वही लोग हैं, जो गुजरात की घटना पर चुप्पी साध लेते हैं। इनकी स्याही चुक जाती है। इस घटना पर जिसमें वामपंथियों ने कानून को हाथ में लेकर और वहां की पुलिस से मिलकर सैकड़ों किसानों की हत्या कर दी। सारे के सारे लेखक संगठन इस घटना पर चुप्पी साधे हुए हैं। मुंह खोलते भी हैं तो किसानों को ही दोषी बताते हैं। कोलकाता मे लेखकों का एक संगठन माकपा के पक्ष में रैली निकालता है। महाश्वेता देवी अकेले वाम से लड़ती हैं। जाहिर है, इनकी धर्मनिरपेक्षता कितनी खोखली, दोगली है। हालांकि गाहे-ब-गाहे इसका प्रमाण मिलता ही रहता है। मकबूल फिदा हुसैन को लेकर इनका नजरिया देख सकते हैं। उस बड़े कलाकार ने कभी भारत मां का नंगा चित्र बनाया, कभी सरस्वती का। जब अपनी मां की तस्वीर बनानी हुई तो उन्होंने पूरी शालीनता बरती। जब हुसैन के इस कृत्य का विरोध होता है तो 'कला की अभिव्यक्ति' आड़े आ जाती है और इस स्वतंत्रता के पैरोकार सड़क पर आ जाते हैं। इनके ऐसे चरित्र को लेकर शुकदेव सिंह का ऐसे लोगों से न कोई लगाव था न कोई दुराव। न दोस्ती न बैर। अलबत्ता जो देखा, जो समझा उसे डंके की चोट पर लिखा। बुरा लगे तो लगे। वे मंच और मचान के आदमी नहीं थे, कि कहां क्या बोलना है, कौन-सा शिगूफा किस मंच से छोड़ना है। वे विचारधारा के गुलाम नहीं थे, विचारों की दुनिया के आदमी थेष वे लिजलिजी जमीन पर नहीं टिके थे। उनके पास परंपरा की भरी-पूरी थाती थी। एक मजबूत जमीन थी। परंपरा उनके लिए घृणा या तिरस्कार की वस्तु नहीं थी।
पिछले एक दशक से वे एक किस्म की जिंदगी जी रहे थे। बीमारी से लाचार थे। उनकी विवशता और बेचैनी को देखकर उनकी प्यारा कुत्ता तो कभी-कभी रात भर उन्हीं के पास रहता, उन्हें एक पल के लिए भी छोड़ता नहीं। बाद में इस कुत्ते ने उनका साथ छोड़ दिया। उनके घर जाता तो, वही जर्मन शेफर्ड कुत्ता अगवानी करता। इस दौरान उन्हें मृत्यु नजदीक आती दिखाई देती, लेकिन कुछ समय बाद मृत्यु किसी ओट में छिप जाती। जब डॉ. शिवप्रसाद सिंह का निधन हुआ तो उन्होंने एक बड़ा लेख लिखा, 'डॉ. शिवप्रसाद सिंह का निधन और मेरे अंतिम दिन'। उस समय भी उन्हें अपनी मृत्यु की आहट सुनाई दी। उनकी पहली पत्नी बीमारी की खबर पाकर बनारस गईं, कुछ दिन रही, वे स्वस्थ हो गए, फिर वे गांव चली आईं। विधि का कैसा विधान है कि उनकी मृत्यु हुई भी तो बीमारी से नहीं, श्वास नली में भोजन के फंस जाने से। इस बीच भी उनका लिखना जारी था, रफ्तार कम थी, लेकिन धार वही थी। राजकमल से 'रैदास' पर किताब भी इसी बीच आई और 'भए कबीर कबीर' का प्रकाशन भी इसी दौरान हुआ। संस्मरणों की किताब भी इसी दशक में आई। अब वे नहीं हैं, लेकिन यादों और किताबों में तो मिलेंगे ही...।

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