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बदलते परिवेश में अंगरेज़ी का प्रभाव इतना बढ़ा है कि विद्यालय में प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर हिन्दी-शिक्षक हिन्दी अध्यापन की मात्र खाना-पूर्ति कर रहे हैं। उच्चारण और ध्वनि, वर्तनी, अनुस्वार, स्वर, विराम-अर्द्धविराम, हलन्त आदि के सम्यक् बोध के अभाव में हिन्दी भाषा का स्वरुप धीरे-धीरे विकृत होना भारत के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। उर्दू शब्दों के गलत उच्चारण के बाद मन आत्मग्लानि से भर उठता है और अभिव्यक्ति से उत्पन्न ऐब को भांपकर दूसरे भी नाक-भौं सिकोड़ते हैं। अपनी गलती का अहसास भी उच्चारण में सुधार का अवसर तो देता है. सीखने की प्रक्रिया तो अनवरत चलती रहती है। कई रचनाकार मित्रों को कहते सुना गया है- ''अब इतनी भी शुद्धता ठीक नहीं है..!..क्या जरूरी है?...'' आदि। ऐसी सोच से मन आहत होता है। अत्यन्त पढ़े-लिखे प्रबुद्ध वर्ग से ऐसी अपेक्षा नहीं होनी चाहिए। यदि भोजन बनाने में मनक, शक्कर, मसालों की समुचित मात्रा का ध्यान एक अनपढ़ महिला भी रख सकती है। मोची पैर की नाप के अनुसार जूते बना सकता है। कारीगर कुशलतापूर्वक मात्रा और साइज में सभी सामान निर्मित कर सकता है, तो भाषा और शब्दों का लंबा सफर तय करने वाला प्रबुद्ध लेखक वक्ता इतना गया गुजरा और अपने को इतना लाचार क्यों समझता है? उसके पीछे उसकी मंशा को समझना बहुत जरूरी है।

उच्चारण (तलफ्फुज़)- ध्वनि की शुद्धता के बिन्दु पर कई लोग मानते हैं कि बगैर उर्दू ज्ञान के उच्चारण दुरुस्त नहीं हो सकता। मगर ऐसा नहीं है। उर्दू भाषा की उत्पत्ति के पूर्व भारत में जो भाषा प्रचलन में रही, उस भाषा के मर्मज्ञों में इतनी प्रवीणता एवं कुशाग्रता तो थी जो शुद्ध लेखन और वाचन में समर्थ थे। संस्कृत भाषा हिन्दी की जननी मानी जाती है। जहां तक मैं समझता हूं संस्कृत व्याकरणाचार्यों ने भाषा के परिमार्जन में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। अब भी शुद्ध हिन्दी बोलने वाले लोगों की संख्या अपवाद स्वरूप है। यह बात दीगर है कि संस्कृतनिष्ठ हिन्दी शब्दों के लोकप्रचलन में होने से उसे समझनेवालों को बेशक कठिनाई होती है क्योंकि सामान्यतया हिन्दी-उर्दू की समझ रखने वाले लोगों की बोलचाल की भाषा 'हिंदुस्तानी' ही है अर्थात् उसमें दोनों भाषाओं के शब्द शामिल होते हैं। हाँ, इतना जरूरी है जो शब्द जिस भाषा से सम्बन्ध रखता हो, उसको उचित सम्मान मिले और यह तभी संभव है जब उस शब्द का ज्ञान हो, और यदि जानकारी नहीं भी है तो जानकारी प्राप्त करना, सीखना बेमानी नहीं है। जाहिर है जिन शब्दों का ज्ञान नहीं है उनके प्रयोग में अशुद्धता का होना स्वाभाविक है। शब्द व्युत्पत्तिशास्त्र (etymology) का ज्ञान कम से कम उन लोगों के लिए अनिवार्य है जो शब्दों के जादू चलाते हैं और उन्हीं शब्दों की कमाई खाते हैं। यह पूर्वाग्रह का भी विषय नहीं है। छोटी कक्षा में था तभी मेरे एक शिक्षक ने भाषा में उच्चारण की अशुद्धता का बोधगम्य उदाहरण देते हुए कहा था-''जैसे पीने वाले दूध में अचानक एक मक्खी गिर जाती है तो दूध पीने लायक नहीं रह जाता, वैसे ही हाल लेखन और भाषण में भी वर्तनी की अशुद्धि और ध्वनि-दोष के होने से हो जाता है।''
हिन्दी भाषा में स्वर-व्यंजन की क्रम व्यवस्था इतनी संतुलित है कि अक्षरों से उत्पन्न होने वाली ध्वनि का बोध लघु प्रयास और अभ्यास से संभव है। यह मानव-कंठ के लिए पूर्ण वैज्ञानिक है। तथापि कुछ व्यंजन ऐसे हैं जिनमें इतना सूक्ष्म अंतर होता है कि उनकी ध्वनि उच्चारण में सतर्कता आवश्यक है। जैसे-, , , क्ष, त्र, ज्ञ आदि। उसी प्रकार उर्दू में भी नुख्ता का काफी महत्व है जिनसे उर्दू लिपि के व्यंजनों के उच्चारण मे व्यापक अंतर जाते हैं। यही नहीं वरन् 'शीन' और 'काफ' के बिना उर्दू ज्ञान कठिन माना जाता है।...(क्रमशः)

लिखने-पढ़ने वालों, तथा समझने-बोलने वालों के सामने प्रायः भाषा का सवाल उठता रहता है। ऐसे प्रश्न खासकर लेखकों, कवियों, पत्रकारों, उद्घोषकों, वक्ताओं, गायकों, नाट्यकर्मियों एवं शिक्षकों को गहन विचार करने का आमंत्रण देते रहते हैं। बावजूद इसके हममें से अधिकांश इसे अनावश्यक मानकर इससे कन्नी कटाते रहते हैं। जाहिर है समाज में प्रत्येक व्यक्ति भाषाविद् नहीं हो सकता। मगर यह उनसे अपना सरोकार तो रखता ही है, जिनकी रोजमर्रा की जिंदगी का ताना-बाना लिखने और बोलने से ही बुना जाता है. यह समस्या किसी भी भाषा की बोली और आलेख में दिख सकती है। भाषा अपनी मातृभाषा हिन्दी इससे प्रायः कुछ ज्यादा ही ग्रस्त दिखती है। भाषा में व्याकरण का बहुत महत्व है- जिसमें वर्तनी, उच्चारण और ध्वनि पर विशेष ध्यान जरुरी हो जाता है। इसीलिए प्रायः लिखने की शुद्धता बोलने की शुद्धता का पैमाना बन जाती है। उन भाषाशास्त्रियों की राय से भी सहमत कदाचित हुआ जा सकता है कि ''जो लिखिए, सो बोलिए अथवा जो बोलिए, सो लिखिए'' यदि इसे भी थोड़ी देर के लिए फार्मूले के तौर पर आजमाएं तो भी हमारे लेखन और वाचन दोनों में निश्चित रूप से सुधार आ सकता है। बोलने में ध्वनिशास्त्र कते पालन की अनिवार्यता होनी चाहिए।
बीबीसी हिन्दी सेवा में सम्मानित पूर्व उद् घोषक कुरबान अली से अपने संक्षिप्त मुलाकात की अवधि में मुझसे उसी की टांग तो़ड़े जाने की थोड़ी चर्चा हुई। उनके मन की वाजिब पीड़ा से मैं सहमत हूं। उर्दू भाषा के शब्दों के उटपटांग गलत उच्चारण से कुछ का कुछ अर्थ निकाला जा सकता है। नुख्ते के हेर-फेर से खुदा-जुदा हो जाता है। ठीक वैसे ही किसी भी भाषा के शब्दों के अशुद्ध उच्चारण से उसकी संप्रेषणीयता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो जाता है। हालांकि मैं कोई भाषाविद् नहीं हूं, न ही भाषाशास्त्र की औपचारिक-अनौपचारिक शिक्षा ही ग्रहण की है, तथापि मेरा मानना है कि इस विषय पर विमर्श आवश्यक है। climate difference के कारण स्वर-व्यंजन के उच्चारण और उनसे उत्पन्न ध्वनियों का अंतर चर्चा का एक दूसरा विषय हो सकता है। मगर ऐसा एक खास वर्ग है जिसे अति प्रबुद्ध माना जाता है जो शिक्षा, पत्रकारिता, प्रशासन आदि क्षेत्रों से जुड़े होते हैं। उनसे आम आदमी विशिष्ट भाषा-प्रयोग की अपेक्षा रखता है। संभवतः उनकी बोलचालक की दक्षता, दोष-रहित भाषागत कुशलता उन्हें विशिष्टता प्रदान करती है और निस्संदेह वे इसी रूप में आम से खास बन जाते हैं....(क्रमशः)

मेरी अपनी कल्पनाओं में भी कविता-कुसुम खिलने लगे थे। बाकी दुनिया और मेरे बीच 'कविता' थी तथा 'कविता' और मेरे बीच 'कल्पना' थी। जी हां, ये कविता मेरे अंतर्मुखी स्वभाव के मोटे आवरण के पीछे थी। झेंप इतनी कि यह काव्य-रोमांस कहीं उजागर होकर मुझे अपराध के कटघरे में खड़ा कर दे। जाने कितनी कविताओं के चिट-पुर्जे जेब में पड़े-पड़े चूहों के कुतरे हुए कागजों में तब्दील हो गये। अखबारों से सरोकार उन्हें केवल बांचने भर से था। उनमें छपना तो अत्यंत दुष्कर लगता था। तिस पर इंदिरा गांधी की अ़ड़ियल इमरजेन्सी। अभिव्यक्ति पर पाबंदी का त्रासद चिंतन 'अनुभूति' के धरातल पर हर क्षण पटक देता था। एक अजीब बेचैनी मुझे शब्दों के जोड़-तोड़ के लिए विवश करती। उनके अर्थ उमड़ते-घुमड़ते मेरे मन को थोड़ी राहत दे देते। दूसरों को कितना अर्थवान लगते इसका भान नहीं था मुझे। तब मैं बी.. का छात्र था। 'जयदेश' अखबार में छपने के लिए अपनी एक रचना इस नाउम्मीदी से प्रेषित की थी कि छपेगी नहीं। मगर हुआ उल्टा। जीवन का प्रथम कीर्तिमान मेरे नाम था। रचना प्रकाशित थी- ''दिल को जलाता हूं बार-बार/ रोशनी नहीं होती... '' मगर वास्तविक रोशनी तलाशने की वह ललक छिप नहीं पायी।
उम्र में मेरे पिताजी से भी चार-पांच साल बड़े, मेरे श्रद्धेय पिताजी के लिए भी श्रद्धेय एक ऐसे महान व्यक्तित्व से परिचय बढ़ा जिनका नाम गुम हो गया था, इसलिए उन्हें 'गुमनाम' नाम से ही ख्याति मिली।मैंने मन ही मन उन्हें 'गुरु' मान लिया। जी, उनका पूरा नाम हरिवंश पाठक है। कभी भी बड़े ही संकोच से , उनके बहुत कुरेदने के बाद जब मैं अपनी कोई नयी रचना सुनाना चाहता...तो भी पूरी की पूरी कविता कभी नहीं सुना पाया। जानना चाहेंगे क्यों? जनाब! कविता के प्रथम छंद की दुरुस्तगी में ही अक्सर शाम हो जाया करती! फिर किसी दूसरे, तीसरे, चौथे दिन होती हुई वही कविता उन तक पहुंचने में महीनों का सफर तय करती। उनकी हरी झंडी मिलती, तब मैं उसे कहीं अन्यत्र सुनाने के काबिल समझता अपने को। बावजूद इसके वे हमेशा मुझे ताकीद करते कुछ और बेहतर विकल्प ढूंढने के। आप मानें या मानें छन्दशास्त्र का वैसा बोध अभी तक किसी अन्य में (यद्यपि अन्य भी हो सकते हैं) मुझे मिला नहीं। मुझे यह लिखते हुए गर्व हो रहा है कि उन्होंने जो कुछ मुझे दिया उन्हें सहेजने की कोशिश में हूं। क्रमानुसार कई प्रसंगों की चर्चा करनी है।
उन दिनों जमानियां स्टेशन पर मासिक काव्य गोष्ठियों का आयोजन हिंदू इण्टर कॉलेज के शिक्षक बिशनलाल कपूर के आवास पर 'मधुरिमा' नाम से होता था। हर महीने होने वाली उस संगोष्ठी के प्रमुख किरदार थे- 'गुमनाम जी' नये-नये कवियों की एंट्री और हर बार नई-नई रचनाओं का पाठ उस गोष्ठी की विशेषता थी। उस समय वाराणसी के साहित्य-संसार से भी मेरा लगाव बढ़ गया था। मैं वहीं से आंग्ल साहित्य से स्नातकोत्तर कर रहा था। हर क्षण कविता का स्फुरण। मेरा युवा मन अनेक अभिलाषाओं और महत्वाकांक्षाओं से नित्य रू--रू होता था। कुल मिलाकर मेरे भीतर मेरी कविताओं का स्पंदन तो हो चुका था, मगर उस काव्य-गोष्ठी 'मधुरिमा' एवं कवि 'गुमनाम' के सानिध्य ने मंत्र-शक्ति फूंक दी थी। फिर क्या था गाहे--गाहे आये दिन...मैं 'पाठक मेडिसिन सेण्टर' की तरफ खिंचा चला जाता...दवा खरीदने नहीं...बल्कि गुमनाम जी का स्नेह, कृपा, आशीष और मार्गदर्शन प्राप्त करने, जो आज तक बरसता रहता है...मैं सराबोर होता रहता हूं। आयुर्वेदिक औषधियां जैसे कूट-छानकर बनायी जाती हैं, वैसे ही कविता-सृजन के महारथी 'गुमनाम' का नाम जमानियां के साथ-साथ चलता रहेगा।सन् 1979 के उत्तरार्ध में मैंने एक डिग्री कॉलेज में नौकरी शुरु कर दी थी। प्रायः उसी राह से आना-जाना होता था। 'कविता' का प्रसाद प्राप्त करना अनिवार्य-सा लगता था। मेरे पिताजी को भी मालूम हो चुका था मेरी इस नयी रुचि के बारे में। 'गुमनाम जी' (यानी पाठक जी) मेरे पिताजी के पाहुन लगते हैं। गाँव के किसी ऐसे रिश्ते की जानकारी मुझे बाद में हुई।
गुमनाम जी का हिन्दी, उर्दू और भोजपुरी की गीत-रचना पर समान अधिकार है। बुढ़ापे में भी गीत, गजल, छन्द की प्रस्तुति के समय उनके गले से उच्चरित ध्वनि उन्हें अब भी जवान होने का प्रमाण-पत्र देती-सी लगती है। उनकी अभिव्यक्ति में गजब का सम्मोहन है, जो श्रोताओं को साथ-साथ गाने के लिए विवश कर देता है। उनकी कुछ गजलों का ऐसा सुरूर होता है कि उनकी कुछ पंक्तियां, उनके गाने से पूर्व, श्रोतागण पहले से ही गुनगुनाने लगते हैं। जैसे-
''सिर्फ तुमने पर्दा उठाया
मरने वालों में क्या हम नहीं थे?"
लगता है कि उनके संग्रह ''दर्दों के छन्द'' की वह गजल उनका संपूर्ण जीवन दर्शन है।
''सागरे लब गुलाबी की खातिर
मेरे अरमान क्या कम नहीं थे।"
ऐसे अनेकों छन्द लोगों के दिलों में घर कर चुके हैं। ऐसे ही गीत-गजलों के अमर रचनाकार-शायर-कवि-गुरु 'गुमनाम' मेरे दिल में मेरे गीतों को अमरत्व प्रदान कर रहे हैं।
यह गुरु कृपा ही है कि विजय शर्मा, गोपाल तन्हा, गुरुदीप निगम, राजेन्द्र सिंह, मोती यादव, वीरेन्द्र सारंग, मदन गोपाल सिन्हा, राजकुमार, संजय कृष्ण, मनज, विनय राय, अनन्त जी, मिथिलेश गहमरी, आदि रचनाकारों का आये दिन जमावड़ा पाठक जी को प्रसन्नता से लबालब भर देता है। वे दूसरों को गौरवान्वित कर गौरव महसूस करते हैं। आतिथ्य सत्कार तो उनकी रग-रग में समाहित है। दर्द की दवा यहीं मिलती है।
मेरे मित्र साहित्यिक लंगोटिया यार वीरेन्द्र सारंग और मेरे ऊपर उनका अनुग्रह अभूतपूर्व रहा है। औरों की बनिस्बत हमारी उपस्थिति की बारंबारता अधिक थी। 'गुमनाम' जी ने (जैसा अन्य सभी महसूस करते हैं)
मुझे और सारंग को इतना स्नेह दिया है कि हमें दांया-बांया माना जाने लगा। पता नहीं हाथ या आँख। वे हमारी रचनाओं को सुनते, मार्गदर्शन देते, पढ़ने का सुझाव देते और इतना प्रोत्साहित करते जैसे हम लोग शीघ्र सिद्धि प्राप्त करने वाले हों। कई बार उनके साथ बाहर के गोष्ठियों और कवि -सम्मेलनों में हमें श्रोता की हैसियत से भी जाना पड़ा। बाद में अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों में भी शिरकत की हम लोगों ने। निश्चित तौर पर जमानियां के साहित्यकाश में अमर रहेंगे गुमनाम जी। स्मृति-पटल पर ढेर सारी यादें अंकित हैं वो फिर कभी...फिलहाल...--

''गुम न होगा नाम, ये कहता जमानियां।
गर न होते तुम, कहां रहता जमानियां।।"

कुछ लेखक, कवि, पत्रकार और भी...

जमानियां के सफर में कुछ लेखक, कवि, पत्रकार और भी...

  • स्व. कवि उस्मान - जमानियां
  • श्री प्रह्लाद यादव (सं. चक्रमण)- हरपुर
  • डॉ. राम अकबाल पाण्डेय- दरौली
  • डॉ. मदन गोपाल सिन्हा- जमानियां स्टेशन
  • डॉ.. हरिश्चंद्र यादव- दरौली
  • उर्फी जमानियां- जमानियां
  • नागानंद वास्त्यायन- मतसा
  • राम अवतार पाण्डेय- किशुनीपुर
  • दिनेश सिंह- रायपुर
  • स्व. बनसत्ती राम- बरूइन
  • तौसीफ सत्यमित्रम्- फुफुआव
  • कुमारी चंदन- जमानियां
  • रामजी राय- मतसा
  • सुरेश राय- जमानियां स्टेशन
  • मो. इफ्तेखार ज़ाज़िब- फूली
  • रवीन्द्र नाथ चतुर्वेदी- पचोखर

ZAMANIA IN DELHI WITH “DHOOP LIPHAPHE MEIN”

ZAMANIA IN DELHI WITH

“DHOOP LIPHAPHE MEIN”

“Dhoop Liphaphe Mein” my first book of poetry collection was released at India International Centre, New Delhi, on the 22nd June 2008,by an eminent Hindi scholar and critic Dr. Manager Pandey in the hon,ble presence of invited authors ,poets and journalists. In the conference Dr. Manager Pandey including Madhukar Upadhyay(Former B.B.C. journalist) Dr. Hemant Joshi ,linguist, Dr. Vigyanvrat ,the writer and fine artist ,Anil Joshi ,critic delivered their comments and speech on the importance of lyric in the contemporary context of poetry, as well as its impact on the society. The function ,in a very appreciating and successful manner, was conducted by a renowned anchor and social worker in the capital Chaitanya Prakash. I, too, presented the two of the poems from the collection. Several T.V. channels and printmedia journalists covered the entire programme. At last the convener of the progrmme Vivek Satyamitram maintained the courtsey of giving vote of thanks and gratitude to all of the invitees and guests in the audience attending to the conference on the eve of the book release ceremony.

Really, It was an amazing and unforgettable confluence of great literateurs, scholars, journalists and men of letters. Let me thank to my advocate friend Surendra Prasad (Zamania), who repeatedly suggested me on the telephone to celebrate this “Book Vimochan” function here in Delhi. I thought it wholly justified and complied with it immediately. One could witness Zamania in Delhi in such a way. With great regards

Kumar Shailendra,
Zamania, Ghazipur

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