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मेरी अपनी कल्पनाओं में भी कविता-कुसुम खिलने लगे थे। बाकी दुनिया और मेरे बीच 'कविता' थी तथा 'कविता' और मेरे बीच 'कल्पना' थी। जी हां, ये कविता मेरे अंतर्मुखी स्वभाव के मोटे आवरण के पीछे थी। झेंप इतनी कि यह काव्य-रोमांस कहीं उजागर होकर मुझे अपराध के कटघरे में खड़ा कर दे। जाने कितनी कविताओं के चिट-पुर्जे जेब में पड़े-पड़े चूहों के कुतरे हुए कागजों में तब्दील हो गये। अखबारों से सरोकार उन्हें केवल बांचने भर से था। उनमें छपना तो अत्यंत दुष्कर लगता था। तिस पर इंदिरा गांधी की अ़ड़ियल इमरजेन्सी। अभिव्यक्ति पर पाबंदी का त्रासद चिंतन 'अनुभूति' के धरातल पर हर क्षण पटक देता था। एक अजीब बेचैनी मुझे शब्दों के जोड़-तोड़ के लिए विवश करती। उनके अर्थ उमड़ते-घुमड़ते मेरे मन को थोड़ी राहत दे देते। दूसरों को कितना अर्थवान लगते इसका भान नहीं था मुझे। तब मैं बी.. का छात्र था। 'जयदेश' अखबार में छपने के लिए अपनी एक रचना इस नाउम्मीदी से प्रेषित की थी कि छपेगी नहीं। मगर हुआ उल्टा। जीवन का प्रथम कीर्तिमान मेरे नाम था। रचना प्रकाशित थी- ''दिल को जलाता हूं बार-बार/ रोशनी नहीं होती... '' मगर वास्तविक रोशनी तलाशने की वह ललक छिप नहीं पायी।
उम्र में मेरे पिताजी से भी चार-पांच साल बड़े, मेरे श्रद्धेय पिताजी के लिए भी श्रद्धेय एक ऐसे महान व्यक्तित्व से परिचय बढ़ा जिनका नाम गुम हो गया था, इसलिए उन्हें 'गुमनाम' नाम से ही ख्याति मिली।मैंने मन ही मन उन्हें 'गुरु' मान लिया। जी, उनका पूरा नाम हरिवंश पाठक है। कभी भी बड़े ही संकोच से , उनके बहुत कुरेदने के बाद जब मैं अपनी कोई नयी रचना सुनाना चाहता...तो भी पूरी की पूरी कविता कभी नहीं सुना पाया। जानना चाहेंगे क्यों? जनाब! कविता के प्रथम छंद की दुरुस्तगी में ही अक्सर शाम हो जाया करती! फिर किसी दूसरे, तीसरे, चौथे दिन होती हुई वही कविता उन तक पहुंचने में महीनों का सफर तय करती। उनकी हरी झंडी मिलती, तब मैं उसे कहीं अन्यत्र सुनाने के काबिल समझता अपने को। बावजूद इसके वे हमेशा मुझे ताकीद करते कुछ और बेहतर विकल्प ढूंढने के। आप मानें या मानें छन्दशास्त्र का वैसा बोध अभी तक किसी अन्य में (यद्यपि अन्य भी हो सकते हैं) मुझे मिला नहीं। मुझे यह लिखते हुए गर्व हो रहा है कि उन्होंने जो कुछ मुझे दिया उन्हें सहेजने की कोशिश में हूं। क्रमानुसार कई प्रसंगों की चर्चा करनी है।
उन दिनों जमानियां स्टेशन पर मासिक काव्य गोष्ठियों का आयोजन हिंदू इण्टर कॉलेज के शिक्षक बिशनलाल कपूर के आवास पर 'मधुरिमा' नाम से होता था। हर महीने होने वाली उस संगोष्ठी के प्रमुख किरदार थे- 'गुमनाम जी' नये-नये कवियों की एंट्री और हर बार नई-नई रचनाओं का पाठ उस गोष्ठी की विशेषता थी। उस समय वाराणसी के साहित्य-संसार से भी मेरा लगाव बढ़ गया था। मैं वहीं से आंग्ल साहित्य से स्नातकोत्तर कर रहा था। हर क्षण कविता का स्फुरण। मेरा युवा मन अनेक अभिलाषाओं और महत्वाकांक्षाओं से नित्य रू--रू होता था। कुल मिलाकर मेरे भीतर मेरी कविताओं का स्पंदन तो हो चुका था, मगर उस काव्य-गोष्ठी 'मधुरिमा' एवं कवि 'गुमनाम' के सानिध्य ने मंत्र-शक्ति फूंक दी थी। फिर क्या था गाहे--गाहे आये दिन...मैं 'पाठक मेडिसिन सेण्टर' की तरफ खिंचा चला जाता...दवा खरीदने नहीं...बल्कि गुमनाम जी का स्नेह, कृपा, आशीष और मार्गदर्शन प्राप्त करने, जो आज तक बरसता रहता है...मैं सराबोर होता रहता हूं। आयुर्वेदिक औषधियां जैसे कूट-छानकर बनायी जाती हैं, वैसे ही कविता-सृजन के महारथी 'गुमनाम' का नाम जमानियां के साथ-साथ चलता रहेगा।सन् 1979 के उत्तरार्ध में मैंने एक डिग्री कॉलेज में नौकरी शुरु कर दी थी। प्रायः उसी राह से आना-जाना होता था। 'कविता' का प्रसाद प्राप्त करना अनिवार्य-सा लगता था। मेरे पिताजी को भी मालूम हो चुका था मेरी इस नयी रुचि के बारे में। 'गुमनाम जी' (यानी पाठक जी) मेरे पिताजी के पाहुन लगते हैं। गाँव के किसी ऐसे रिश्ते की जानकारी मुझे बाद में हुई।
गुमनाम जी का हिन्दी, उर्दू और भोजपुरी की गीत-रचना पर समान अधिकार है। बुढ़ापे में भी गीत, गजल, छन्द की प्रस्तुति के समय उनके गले से उच्चरित ध्वनि उन्हें अब भी जवान होने का प्रमाण-पत्र देती-सी लगती है। उनकी अभिव्यक्ति में गजब का सम्मोहन है, जो श्रोताओं को साथ-साथ गाने के लिए विवश कर देता है। उनकी कुछ गजलों का ऐसा सुरूर होता है कि उनकी कुछ पंक्तियां, उनके गाने से पूर्व, श्रोतागण पहले से ही गुनगुनाने लगते हैं। जैसे-
''सिर्फ तुमने पर्दा उठाया
मरने वालों में क्या हम नहीं थे?"
लगता है कि उनके संग्रह ''दर्दों के छन्द'' की वह गजल उनका संपूर्ण जीवन दर्शन है।
''सागरे लब गुलाबी की खातिर
मेरे अरमान क्या कम नहीं थे।"
ऐसे अनेकों छन्द लोगों के दिलों में घर कर चुके हैं। ऐसे ही गीत-गजलों के अमर रचनाकार-शायर-कवि-गुरु 'गुमनाम' मेरे दिल में मेरे गीतों को अमरत्व प्रदान कर रहे हैं।
यह गुरु कृपा ही है कि विजय शर्मा, गोपाल तन्हा, गुरुदीप निगम, राजेन्द्र सिंह, मोती यादव, वीरेन्द्र सारंग, मदन गोपाल सिन्हा, राजकुमार, संजय कृष्ण, मनज, विनय राय, अनन्त जी, मिथिलेश गहमरी, आदि रचनाकारों का आये दिन जमावड़ा पाठक जी को प्रसन्नता से लबालब भर देता है। वे दूसरों को गौरवान्वित कर गौरव महसूस करते हैं। आतिथ्य सत्कार तो उनकी रग-रग में समाहित है। दर्द की दवा यहीं मिलती है।
मेरे मित्र साहित्यिक लंगोटिया यार वीरेन्द्र सारंग और मेरे ऊपर उनका अनुग्रह अभूतपूर्व रहा है। औरों की बनिस्बत हमारी उपस्थिति की बारंबारता अधिक थी। 'गुमनाम' जी ने (जैसा अन्य सभी महसूस करते हैं)
मुझे और सारंग को इतना स्नेह दिया है कि हमें दांया-बांया माना जाने लगा। पता नहीं हाथ या आँख। वे हमारी रचनाओं को सुनते, मार्गदर्शन देते, पढ़ने का सुझाव देते और इतना प्रोत्साहित करते जैसे हम लोग शीघ्र सिद्धि प्राप्त करने वाले हों। कई बार उनके साथ बाहर के गोष्ठियों और कवि -सम्मेलनों में हमें श्रोता की हैसियत से भी जाना पड़ा। बाद में अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों में भी शिरकत की हम लोगों ने। निश्चित तौर पर जमानियां के साहित्यकाश में अमर रहेंगे गुमनाम जी। स्मृति-पटल पर ढेर सारी यादें अंकित हैं वो फिर कभी...फिलहाल...--

''गुम न होगा नाम, ये कहता जमानियां।
गर न होते तुम, कहां रहता जमानियां।।"

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