वर्तमान भारतीय राजनीति में लोकतंत्र के पथ पर भ्रष्टाचार का रथ दौड़ रहा है | आसन्न लोकसभा चुनावों में लोकशाही की सारी मर्यादायें चूर-चूर हो रही है | भारतीय संविधान की रक्षा करने वाले राजनीतिक दलों की संयमित शब्दावलियाँ आपसी तू-तू , मैं-मैं में तब्दील हो चुकी हैं | राष्ट्रीय मुद्दे शब्दों के मकड़जाल में उलझकर रह गए हैं | सत्ता हथियाने वाले राजनेताओं से राष्ट्र-कल्याण की अपेक्षा करना बेमानी है | आम जनता लाचार और बेबस हैं | वोट देकर सत्तासीन करना तो उनके वश में है , मगर टिकट देकर प्रत्याशी घोषित कराना तो घिनौनी सियासत कर देश को रसातल पहुँचाने वाले तथा कथित कर्णधारों के हाथो में निहित है |
वर्तमान राजनेताओं के लिए भ्रष्टाचार, खासतौर से 'राजनीतिक भ्रष्टाचार' कोई अहम् मुद्दा है ही नही | राजनीतिक रोटियाँ सेंकने वालों के चेहरे और चरित्र में कोई समानता नही है | भ्रष्टाचार के रथ पर सवार होकर बहुरूपिये निकल पड़े हैं लोकतंत्र के पथ पर भारत की जनता की खिदमत करने का ढिंढोरा पीटने | चुनावी जंग जीतने की मुहिम में कोई किसी से कम नही दीखता | संविधान की चिंदी-चिंदी उड़ाकर पुनः संविधान की रक्षा का संकल्प लेने को आमादा सभी राजनीतिक दल संसद को अपराधियों, माफियाओं, अपहर्ताओं, तस्करों, गुंडों , डाकुओं, बलात्कारियों और दलालों का अखाड़ा बनाकर देश की जनता के भाग्य का फ़ैसला करेंगें और भारतीय लोकतंत्र को मज़बूत २१वी सदी में देश को तेज़ रफ्तार से विकसित करने का उनका फार्मूला हास्यास्पद हैं | स्व० जयप्रकाश बागी की पंक्तियाँ स्मरणीय हैं -

"कौन जीतेगा , कौन हारेगा
जो भी जीतेगा जान मारेगा |
हम गरीबों का खून सस्ता है
ये भी गारेगा, वो भी गारेगा ||
नंगई ही लिबास है जिनका
क्या बचा है, जो तू उघारेगा ?"

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