मीठे गीत रचें

जब-जब सोन चिरैया चहके-
बरगद मन डोले,
नई सदी जब परत-दर-परत-
गांठ-गांठ खोले।
ऐसी हवा चले चूल्हों की-
बुझती आग जले,
ऐसे पानी बहे खुशी के
अनगिन कुसुम खिलें ।
ऊंचे स्वप्न गढ़ें, नयनों से-
लम्बी नींद खुले,
दर्द बढ़े, जब हद से ज्यादा-
दर्द दवा हो ले ।
उर में जोश भरे हर पंछी-
नील गगन छू ले,
होश रहे, धरती मैया का-
कर्ज नहीं भूलें ।
उतना नशा चढ़े, यह जीवन-
सावन बन झूले,
दिशा झूमकर गाए, मौसम-
हंसकर गले मिलें ।
मीठे गीत रचें जिससे-
मानस के पाप धुलें,
पहली किरण लिखे सूरज-
फिर शामें नहीं ढलें ।
ओछी नागफनी पथ में-
जब फूलों- सी मचले,
आगे बढ़ते जाएं हमारे-
नंगे पांव भले।
रजवाड़ों के किस्से सुनकर-
शिकवे और गिले,
तीखे तेवर, वक्त बेरहम-
समतल करे किले ।

हज़ारों शब्द बाज़ारों में

सृजन के स्वप्न,
मेरी आंख में-
जब से उतर आए,
मेरा मन इंद्रधनुषी रंग बन-
आकाश लिखता है ।
प्रतीक्षा है नदी का जल
बहे वैदिक ऋचाओं- सी,
घड़ी की सूइयां सज-धज चलें-
सोलह कलाओं-सी,
समय की क्रूर मुट्ठी में
उम्मीदें जब बिखर जाएं,
मेरा तन कृष्णवंशी संग बन-
मधुमास लिखता है ।
हज़ारों शब्द बाजारों में-
ढूंढें अर्थ- बैशाखी,
उधारी कल्पना की शाख पर-
टिकते नहीं पाँखी,
शिखर छूने में आड़े-
आ रही हिमगिरि-हवाएं,
मेरा प्रण सूर्यवंशी ढंग बन-
इतिहास लिखता है ।
हवा होने की कीमत-
जानती होगी खुली खिड़की,
धुएं से, धुंध से छाने-
दिवस के रूप की तल्खी,
क्षितिज के छोर पर जब-
अग्निमालाएं धधक जाएं,
मेरा धन सोमवंशी अंग बन-
एहसास लिखता है ।

क्षितिज चूमो, उड़ो चिड़िया !

फक़त काग़ज़ के टुकड़ों पर
न कोने में सड़ो चिड़िया।
कभी गंदे इरादों के
न धोखे में पड़ो चिड़िया ।
हवा की सनसनी भी
गुनगुनी-सी धूप लाए तो,
खिड़कियां खोलकर रखना ।
सुभाषित मंत्रणाओं को,
सृजन-संवेदना बन-
आचमन करती जुड़ो चिड़िया ।
फुदकना क्या तुम्हें-
सोने की चमकीली लकीरों पर,
चहकती फाइलों में-
सिसकियां बेबस, अमीरों पर
खुला आकाश है सारा-
क्षितिज चूमो, उड़ो चिड़िया ।
मधुर चीं-चीं, नरम चोंचों को-
तुमुलावाज़ दे देना,
सजा सपने सुनहले-
पंख को परवाज़ दे देना ।
न ही दाएं, न ही बाएं
नहीं पीछे मुड़ो चिड़िया ।।

वक्त का ईमान

भीड़ ने साधी
बड़ी चुप्पी,
यहां पर भेड़ियों को मान ।
चुस्कियों की –
चाय के कप में,
नहीं उठता, अब कोई तूफान ।
साजिशों की रेत, टीलों में –
ढंकी है, हर इबारत व्याकरण की,
सूंघती है गांव की गलियां –
नित्य सड़ियल गंध बौने आचरण की,
पीर सुनती-
चैन की वंशी,
छेड़ती उपलब्धियों की तान ।
फड़फड़ाते पंख, खगकुल भी –
तमाशों-से, चीक के बाजार में,
धड़कनें गिरवी पड़ीं सबकी-
हर कोई सामान के किरदार में,
सर्प केंचुल-सा
तराजू भी,
छोड़ता है वक्त का ईमान।
रग नहीं अब एक भी दुखती लगे,
नब्ज छूने की किसे फुर्सत यहां,
टांक कर सारी तमीजें मोम की-
पत्थरों ने भी उठा ली तख्तियां,
हर कबूतर-
गुंबदों में ढूंढता,
एक ऊष्मावान रोशनदान।
चुस्कियों की-
चाय के कप में,
नहीं उठता, अब कोई तूफान ।

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