वक्त का ईमान

भीड़ ने साधी
बड़ी चुप्पी,
यहां पर भेड़ियों को मान ।
चुस्कियों की –
चाय के कप में,
नहीं उठता, अब कोई तूफान ।
साजिशों की रेत, टीलों में –
ढंकी है, हर इबारत व्याकरण की,
सूंघती है गांव की गलियां –
नित्य सड़ियल गंध बौने आचरण की,
पीर सुनती-
चैन की वंशी,
छेड़ती उपलब्धियों की तान ।
फड़फड़ाते पंख, खगकुल भी –
तमाशों-से, चीक के बाजार में,
धड़कनें गिरवी पड़ीं सबकी-
हर कोई सामान के किरदार में,
सर्प केंचुल-सा
तराजू भी,
छोड़ता है वक्त का ईमान।
रग नहीं अब एक भी दुखती लगे,
नब्ज छूने की किसे फुर्सत यहां,
टांक कर सारी तमीजें मोम की-
पत्थरों ने भी उठा ली तख्तियां,
हर कबूतर-
गुंबदों में ढूंढता,
एक ऊष्मावान रोशनदान।
चुस्कियों की-
चाय के कप में,
नहीं उठता, अब कोई तूफान ।

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