उच्चारण (तलफ्फुज़)- ध्वनि की शुद्धता के बिन्दु पर कई लोग मानते हैं कि बगैर उर्दू ज्ञान के उच्चारण दुरुस्त नहीं हो सकता। मगर ऐसा नहीं है। उर्दू भाषा की उत्पत्ति के पूर्व भारत में जो भाषा प्रचलन में रही, उस भाषा के मर्मज्ञों में इतनी प्रवीणता एवं कुशाग्रता तो थी जो शुद्ध लेखन और वाचन में समर्थ थे। संस्कृत भाषा हिन्दी की जननी मानी जाती है। जहां तक मैं समझता हूं संस्कृत व्याकरणाचार्यों ने भाषा के परिमार्जन में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। अब भी शुद्ध हिन्दी बोलने वाले लोगों की संख्या अपवाद स्वरूप है। यह बात दीगर है कि संस्कृतनिष्ठ हिन्दी शब्दों के लोकप्रचलन में न होने से उसे समझनेवालों को बेशक कठिनाई होती है क्योंकि सामान्यतया हिन्दी-उर्दू की समझ रखने वाले लोगों की बोलचाल की भाषा 'हिंदुस्तानी' ही है अर्थात् उसमें दोनों भाषाओं के शब्द शामिल होते हैं। हाँ, इतना जरूरी है जो शब्द जिस भाषा से सम्बन्ध रखता हो, उसको उचित सम्मान मिले और यह तभी संभव है जब उस शब्द का ज्ञान हो, और यदि जानकारी नहीं भी है तो जानकारी प्राप्त करना, सीखना बेमानी नहीं है। जाहिर है जिन शब्दों का ज्ञान नहीं है उनके प्रयोग में अशुद्धता का होना स्वाभाविक है। शब्द व्युत्पत्तिशास्त्र (etymology) का ज्ञान कम से कम उन लोगों के लिए अनिवार्य है जो शब्दों के जादू चलाते हैं और उन्हीं शब्दों की कमाई खाते हैं। यह पूर्वाग्रह का भी विषय नहीं है। छोटी कक्षा में था तभी मेरे एक शिक्षक ने भाषा में उच्चारण की अशुद्धता का बोधगम्य उदाहरण देते हुए कहा था-''जैसे पीने वाले दूध में अचानक एक मक्खी गिर जाती है तो दूध पीने लायक नहीं रह जाता, वैसे ही हाल लेखन और भाषण में भी वर्तनी की अशुद्धि और ध्वनि-दोष के होने से हो जाता है।''
हिन्दी भाषा में स्वर-व्यंजन की क्रम व्यवस्था इतनी संतुलित है कि अक्षरों से उत्पन्न होने वाली ध्वनि का बोध लघु प्रयास और अभ्यास से संभव है। यह मानव-कंठ के लिए पूर्ण वैज्ञानिक है। तथापि कुछ व्यंजन ऐसे हैं जिनमें इतना सूक्ष्म अंतर होता है कि उनकी ध्वनि उच्चारण में सतर्कता आवश्यक है। जैसे-श, ष, स, क्ष, त्र, ज्ञ आदि। उसी प्रकार उर्दू में भी नुख्ता का काफी महत्व है जिनसे उर्दू लिपि के व्यंजनों के उच्चारण मे व्यापक अंतर आ जाते हैं। यही नहीं वरन् 'शीन' और 'काफ' के बिना उर्दू ज्ञान कठिन माना जाता है।...(क्रमशः)
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अच्छा लिखा है।
ऊर्दू के बारे में बहुत सी भ्रान्त धारणाएं फ़ैला दी गयीं हैं; जैसे कि उच्चारण। ऊर्दू लिपि इतनी अवैज्ञानिक एवं अपोर्ण है कि वह हिन्दी के बहुत से ध्वनियों को अभिव्यक्त करने में अक्षम है।
देवनागरी इस मामले में विश्व की लिपियों में बहुत ऊँचा स्थान रखती है। इसके वर्णों की व्यवस्था अनुपम है। इतना पहले इसे प्राप्त कर लिया गया यह घोर आश्चर्य का विषय है।
अनुनाद सिंह said...
14 July 2008 at 12:36
मुझे लगता है कि संस्कृत से हिन्दी का जन्म होते ही उर्दू का हमला हुआ होगा .हिन्दी का व्याकरण शास्त्र काफ़ी मजबूत और अमीर दिखते हुए ढंग से सजा संवार भी नही पाया अपने साहित्य को तभी अंग्रेजी सामने आ गई .
समय की कमी के कारण हमने कुछ शब्द उर्दू से कुछ अरबी से कुछ फ़ारसी से भी लिए ,और आजतक चिपकाए फ़िर रहे हैं.
उर्दू बोलने -सुनने में अच्छा लगता है तो शुद्ध हिन्दी बोलते -सुनते कम नही गुदगुदी करता है .वह क्या बोलता है ! वाह क्या लिखता है ! हिन्दी के साथ भी वर्षों से जुड़ा है ,रहेगा भी .
संस्कृत देवभाषा होते हुए अपने आप प्राचीनतम भाषा हो गई .इन उर्दू ,फारसी ,अरबी के शब्द की जगह संस्कृत के शब्द कब स्थापित होंगे .जबकि अधिकांश क्षेत्रीय भाषा संस्कृत की गोद में ही खेल रही है.
"शब्दों के सफर" पर अजित भाई से अनुरोध कर आया हूँ कि संस्कृत से कितनी भाषाओँ ने शब्द उधार लिए है इसकी भी गणना की जाए .
टिपण्णी मेरी अटपटा तो होती ही है ये कुछ ज्यादा अटपटा लगे तो क्षमा चाहूँगा. वाणिज्य का होकर हिन्दी पर
सटीक टिपण्णी देने का साहस नही है .फ़िर भी क्रमशः पढ़ता रहूँगा , टिपण्णी देता रहूँगा .
सजग करता आपके इस आलेख श्रृंखला के लिए साधुवाद !
संजय शर्मा said...
14 July 2008 at 14:49